Baba
मधुव्रतानन्द शृगाल-पण्डित / MV is jackal speaker
Namaskar,
Recently, so-called Madhuvratananda posted something on WhatsApp about the glory of being a sannyasi. Baba’s following guideline is the perfect response.
Here is an English summary of Baba’s original Hindi teaching:
There are some jackal preachers who are keen to get up on the dais and preach all sorts of scriptural guidelines to others such as, “Live a life of simplicity and sacrifice; maintain good conduct; and, be holy in all you do etc.” These jackal preachers bask in such high-sounding calls, yet these same jackal preachers lead debased and hellish lives. Their personal conduct is awful.Ananda Marga ideology states, “शृगाल-पण्डित के माफ़िक, ख़ूब शास्त्र पढ़ा है---मगर मन एकदम ‘नरक’ में है .... तो उसका क्या होता है ? शास्त्र जब पाठ करता है—“हाँ, हाँ यह करना चाहिए, वह करना चाहिए, वह करना चाहिए”, ख़ूब कहेगा । ख़ूब भाषण देगा platform से कि ‘और त्याग करो, और यह करो, वह करो !’ और, अपने कुछ नहीं करेगा—ऐसा भी लोग होता है । तो, यह होता है क्यों ? भीतर में एक ‘छोटा-मैं’-केन्द्रिक रस-प्रवाह है, और बाहर में लम्बी-चौड़ी बोली ।” (1) [ प्रकाशित - आ०व० २७-११ (हि०), “मनुष्य का कर्तव्य”]
Never get duped by jackal preachers
Despite their rampant hypocrisy and duplicity, such jackal preachers cultivate a following and rise to fame because of the large number of foolish people in the society. The general populace stands in awe of and becomes mesmerized by such deceitful preachers. And here Baba is giving the stern warning to never trust or be swayed by these jackal preachers.
Only those with a dirty mind can act in this type of sinful and blatantly hypocritical manner. Indeed so-called avadhuta Madhuvratananda posted a long treatise about how those walking in saffron robes are divine and holy beings, yet he himself is woefully lost in all sorts of sensual dealings. Even then, without the slightest bit of shame, embarrassment, or repentance, he frolicks around preaching to others to lead a pious life. This the the extreme height of his duplicity.
And if you ever ask such preachers, “Why do you keep a GF?”, then they give some silly justification, that if they do not keep that GF, then she (the GF) will commit suicide. Verily they are walking hypocrites and shameless.
In Him,
Sumati
The basic philosophical message of Madhuvratananda’s letter on WhatsApp is off the mark. Madhuvratananda is embracing the dogmatic Hindu vision that all sannyasis are by definition second gods. In contrast, Sadguru Baba guides us not to bow down to the dress, and only revere those who firmly adhere to the code of bhagavad dharma. So we do not give in to the dogma of priestocracy and instead value those whose conduct is dharmic.
References
1. प्रकाशित - आ०व० २७-११ (हि०), “मनुष्य का कर्तव्य”
~ The below is Madhuvratananda’s letter courtesy of WhatsApp ~
सन्यास- एक आदर्श जीवन :
(आचार्य मधुव्रतानन्द अवधूत,
Phone: 9999987923)
अनेक जन्मों के सुन्दर कर्म और सुसंस्कार के फलस्वरुप मनुष्य के भीतर वैराग्य और विवेक का जन्म होता है। इसी कारण मनुष्य घर-परिवार छोड़कर भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक स्थलों में भ्रमण करते हैं।
सन्यास महत् एवं साहसिक कार्य है । यह क्रांतिकारी जीवन के साथ आदर्श जीवन का परिचायक है । जीवन की उपयोगिता आत्म कल्याण के साथ साथ समाज हित में होनी चाहिए अतः सन्यास जीवन संपूर्ण एवं सर्व श्रेष्ठ जीवन है जो मुक्ति व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है । यह ईश्वर के अति निकट का पथ है यह जीवन मनुष्य के लिए उचित परिवेश सृस्ट करता है जिससे मनुष्य के अंदर भक्ति की उदय होती है और परमात्मा की प्राप्ति अति सहज और सरल हो जाती है ।
सन्यास का मूलभाव सत्य के लिए समर्पण है । सत्य ईश्वर का ही दूसरा नाम है । मनुष्य के अंदर विशेष रुप से यौवन काल में सन्यास लेने की प्रेरणा इश्वर के महती कृपा से जागृत होती है किंतु भाग्यशाली व्यक्ति ही ईश्वर के इस विशेष आवाहन को समझ कर सन्यास ले पाते हैं और जीवन के बंधनों से मुक्त होकर त्रिताप ज्वाला से मुक्त हो जाते हैं। सन्यास एक दिव्य जीवन है, साथ ही साथ एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में इसकी अहम भूमिका है।
सन्यास जीवन वीरों का पथ है, मृत्यु काल का निदान है जो जन्म और मृत्यु के भँवर से मुक्त कर बैकुंठ धाम का सहजता से निवासी बना देता है । यह जीवन सद्मार्ग है जो सद्गुरु प्राप्त करने में सहायता करता है । जहां परिवेश पाकर हृदय में ईश्वर प्रेम स्वयं जाग उठता है। यह आत्म ज्ञान का पथ है जो ईश्वर प्राप्ति में परम सहयोगी है । यह एक सत्संग है कहा जाता है सच्चा मित्र वही है जो आदर्श जीवन तथा ईश्वर की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है। साधक को ब्रह्म सद्भाव ब्रह्मनिष्ठा के साथ चलते चलते अंततः आत्मानुभूति एवं ईश्वर संप्राप्ति होती है ।
संन्यासी अनंत पथ के पथिक हैं जो अपना पूरा जीवन ब्रम्ह संप्राप्ति में लगा देते हैं । वे आदर्श समाज की संरचना के लिए खोज करते हैं और अंत तक अपना पद चिन्ह मानवता के लिए छोड़ जाते हैं । ऐसे महापुरुष अनंत काल तक मानव जगत का कल्याण करते हैं । यह सभी युगों में पूजे जाते हैं तथा सर्वदा मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर रहते हैं । यही अमरत्व है । मनुष्य की गति और असंपूर्णता से संपूर्णताकी ओर है । सन्यास जीवन इसे चरितार्थ कर देता है ।
"असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम गमय"।
"हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमृत तत्व की ओर ले चलो ।"
सन्यास अंतःकरण की यात्रा है। मन एक श्वेत वस्त्र की तरह है, हम इसे जिस रंग में डुबोएंगे ये वही रंग धारण कर लेता है । जैसा सोचेंगे वैसे ही बन जाएंगे । इसलिए बुद्धिमान साधक ईश्वर के रंग में अपने मन को रंग देता है और अपना जीवन सफल कर लेता है । सन्यास जीवन में अपना मन परमात्मा के रंग में स्वयं ही रंग जाता है ।
परम भक्त मीरा कहती है: "लाल ना रंगाऊ मैं हरी ना रंगाऊं अपने ही रंग में रंग दे चुनरिया, श्याम पिया मोहे रंग दे चुनरिया ।"
"कर्म ही मनुष्य को महान बनाता है, अपनी साधना सेवा और त्याग से महान बनो।"
सन्यास जीवन ही एकमात्र ऐसा पथ है जहां साधना सेवा और त्याग तीनों की प्राप्ति का भरपूर अवसर जीवनपर्यंत प्राप्त होता है । यह जीवन वास्तव में एक आदर्शगत प्रवाह है जिसका समापन परमात्मा की गोद में पहुंचकर होता है । यह सहज संपूर्ण और सर्वोत्तम जीवन है तथा चरम लक्ष्य की प्राप्ति कराने में पूर्णरूपेण सहायक है ।
"यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे।"
प्रत्येक मनुष्य के भीतर भगवान बनने की क्षमता है केवल उसे अंतःकरण को जागृत करना है, परिवेश देना है तथा अपने मन को पूर्ण रूप से समर्पित कर देना है।
सन्यास जीवन प्रकृत रूप से ईश्वरीय जीवन है जिसका आधार एकमात्र परमात्मा है। भगवान का चिंतन तथा कर्म करते हुए एक दिन साधक भगवान बन जाता है । उन्हीं में मिलकर एक हो जाता है । इसी प्रकार साधारण बालक सिद्धार्थ भगवान बुद्ध की संज्ञा से विभूषित हुए थे ।
महान नारी मदालसा अपने बच्चों को लोरी गाकर सुलाती थी, वह कहती थी-
" सुद्धोसी बुद्धोसी निरंजनोसी, संसार माया परिवर्जितोसी संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्राम।"
हे मानव तुम शुद्ध हो, बुद्ध हो और निरंजन हो यह संसार माया का रूप है इसका परित्याग करो। यह स्वप्न की तरह है अतः मोह निद्रा का त्याग कर परमात्मा की शरणागति लो । फलस्वरुप मदालसा का सुपुत्र बड़ा होकर सन्यास ले लिया । आज ऐसे अभिभावक की आवश्यकता है ।
स्वामी विवेकानंद ने सन्यास धर्म को अपनाया और महत आदर्श को संपूर्ण विश्व में फैला दिया । उनकी वाणी अनंत काल तक त्याग व कर्तव्य की प्रेरणा देती रहेगी।
इतिहास में अनेकों उदाहरण है जिसमें मनुष्य छोटे-मोटे सामाजिक स्वतंत्रता के लिए अपने स्वार्थ को छोड़कर त्याग और बलिदान को गले लगाया और अमर हो गया ।
अरे। यह तो धर्म की स्थापना काम प्रश्न है, आओ हे मनुष्य इस जीवन को सार्थक कर डालो । सत्यपथ अपना लो और इस पृथ्वी पर विशिष्ट कार्य कर जाओ जिससे तुम्हारे आदर्श की प्रतिष्ठा हो सके।
"कुछ लोग इतिहास पढ़ते हैं, कुछ लोग लिखते हैं, और कुछ लोग इतिहास बनाते हैं ।" तुम इतिहास बनाओ ।
इस युग में नौकरी सहज नहीं है भगवान की नौकरी करो। आज मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ नष्ट कर देते हैं कई आत्महत्या का मार्ग चुन लेते हैं । उन्हें चाहिए इस महान पथ को गले लगा कर अपना जीवन सार्थक कर लें। इसमें अपना और समाज दोनों का हित छुपा है।
सफल सन्यास जीवन के लिए महत् दर्शन आदर्श संगठन तथा उन्नत सर्वोपयोगी आचरण विधि का होना अति अनिवार्य है जो आनंद मार्ग में सन्निहित है। यहां सन्यास प्रशिक्षण केंद्र में साधक को उचित और पवित्र परिवेश देकर सिद्धांत और व्यवहार दोनों में प्रतिष्ठित किया जाता है । इस तरह अपना सर्वांगीण विकास कर साधक अल्पकाल में ही सभी प्रकार के गुणों से संपन्न हो जाते हैं और उनका व्यक्तित्व उदाहरण प्रस्तुत करने वाला बन जाता है । यहां सन्यास प्रशिक्षण के क्रम में व्यक्ति को साधना, सेवा और त्याग की कसौटी पर कस कर तपाकर देवता या देवी बना दिया जाता है । तत्पश्चात आनंद मार्ग संगठन द्वारा ऐसे विशेष गुण और प्रखर संपन्न व्यक्ति को विश्व में कहीं भी आदर्श और धर्म का प्रचार करने हेतु और धर्म की स्थापना हेतु भेज दिया जाता है ।
मनुष्य जीवन अति कठिन है, संपूर्ण रुप से जीने की यही कला है तथा अपने भीतर संपूर्ण योग्यता को जागृत करने का कौशल तथा इसका उपयोग सीखना होगा । इसलिए हे मनुष्य। अपने भीतर छुपे प्रज्ञा व भगवत्ता को जागृत करो तथा संसार का कल्याण करते हुए इसी जन्म में परम पद की प्राप्ति का गौरव प्राप्त करो ।
("अरुणोदय की लालिमा को चीरकर दूर नीले आकाश से दुमदुमी की आवाज आ रही है। वह कह रही है उठो, जागो, सोकर समय नष्ट न करो विजय स्वयं नहीं आती उसे बुलाना होता है । खून पसीना की गर्मी और परिश्रम की अग्निशिखा से उसका स्वागत करना होगा । इसलिए मृतक के समान सोकर पड़े रहने के बदले महाकाल की आह्वान का यथोचित उत्तर देने के लिए तैयार हो जाओ । इसी मुहुतॆ से तैयार हो जाओ।"- श्री श्री आनंदमूर्ति ।)
- आचार्य मधुव्रतानन्द अवधूत
Phone 9999987923
~ The above is Madhuvratananda’s letter courtesy of WhatsApp ~
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